अपने कई लोगो की वीरता की कहानी पढ़ी होगी लेकिन आज हम आपको एक ऐसे आदिवासी वीरों की कहानी बताने जा रहे है जिसके एक इशारे पर ट्रेन को रुकना पड़ता था। जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी है, और उनका आज भी सम्मान किया जाता है। हम बात कर रहे है, अमर शहीद टंट्या भील की जिनकी कर्मस्थली ‘पातालपानी’ रही है। आइए जानते हैं इन्हीं से जुड़ी बाते।
भील परिवार में ‘टण्ड्रा का हुआ जन्म

इनका बचपन का नाम टण्ड्रा था, जिसे बाद में लोग में लोह टंट्या भील के नाम से जानने लगे थे। यह कहानी उस दौर की है, जब देश पर ईस्ट इंडिया कंपनी का पूरी तरह कब्जा हो चुका था। पुलिस भी अंग्रेज अफसरों के इशारे पर नाचती थी। उसी दौर में 1840 के आसपास मध्यप्रदेश के खंडवा में एक आदिवासी भील परिवार में इनका जन्म हुआ था। उन्हें हर प्रकार की असमानता से चिढ़ थी। जिसके कारण उन्होंने अंग्रेजो से लड़ाई ली और उनके विरुद्ध खड़े हो गए थे। विरोधियों ने उन्हें ‘टंट्या’ नाम दिया। जिस शब्द का अर्थ होता है झगड़ा और धीरे-धीरे टंट्या के पीछे मामा जुड़ गया और उनका नाम ‘टंट्या मामा’ हो गया।
इसलिए रूकती है, ट्रेन
आपको बता दे की इंदौर-खंडवा रेलवे रूट पर पातालपानी यानी कालापानी स्टेशन पहुंचने पर ट्रेन कुछ देर के लिए थम जाती है। यहां ट्रेन के रुकने के पीछे एक काफ़ी अजीबोगरीब कारण है। ट्रेन इसलिए रुकती है, क्योंकि ट्रेन का यहां रुकना मतलब किसी वीर को सलामी देना होता है और यह वीर कोई और नहीं बल्कि टंट्या भील ही हैं। जिन्हें बड़े स्नेह से लोग ‘टंट्या मामा कहते हैं। अंग्रेजो ने इन्हे फांसी देने के बाद पातालपानी के ट्रेक दिया था। यह सलामी इसी दिवंगत आत्मा को दी जाती है, जिसे अंग्रेज ‘इंडियन रॉबिन हुड’कहते थे।
गरीबों के मसीहा बन उभरें तो प्रभावित हुए तात्या टोपे
टंट्या भील को आदिवासियों की बदहाली की बहुत चिंता थी, आर्थिक असमानता की खाई को पाटने के लिए उन्होंने अमीरों और सेठों के यहां डाके डालने शुरू कर दिए। इस पैसे का उपयोग वह गरीबों की भूख मिटाने के लिए करते थे। ऐसे में टंट्या के गिरोह ने सबसे अधिक डाके अंग्रेज अफसरों के घर में डालें। ग़रीबों पर अंग्रेज़ों की शोषण नीति के ख़िलाफ़ उसकी आवाज़ लोगों को पसंद आने लगी। और वह गरीबो के मसीहा कहलाने लगे।अंग्रेज़ों ने उन्हें ‘इंडियन रॉबिन हुड’ कहना शुरू कर दिया था। वहीं तात्या टोपे उनसे प्रभावित होकर उन्हें ‘गुरिल्ला युद्ध में दक्ष बनाया।
अपनों की दगा से पकड़े गए, 4 दिसम्बर 1889 को दे दी गई फांसी
अंग्रेज टंट्या मामा के गुरिल्ला लड़ाई से तंग आ चुके थे। ऐसे में अंग्रेज अधिकारियों ने टंट्या के लोगों को फोड़ना शुरू कर दिया। अपने ही लोगो की देगा के कारण वह अंग्रेजी हुकूमत के हाथों पकड़ लिये गए। और 4 दिसम्बर 1889 को उन्हें फांसी दे दी गई। अंग्रेज़ों ने शव को खंडवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी (कालापानी) रेलवे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक दिया। यहां उनकी समाधि स्थल है, जिसके लिए रेल भी सम्मान में थोड़ी देर के लिए यहां रुक जाती है।